टखनों पर रखे अपने सर को रोकते अपने कापते हाथो को, उस अँधेरे कमरे में वो आँखे देख रही है, प्रकाश की वो शिखा जो जल रही है उस केरोसीन से जो घर में अब नहीं है बचा। वेदना तो भी दया आती नहीं , देखकर उसकी दशा। जो जी रही है केवल मृत्यु के इंतज़ार में। वो आँखे शांत है उतनी ही जितना शांत है जीवन उसका, चेहरे पर भाव उसके धूमिल हो चुके है, ऐसे ही धूमिल जैसे उसके जीवन की याद है. वो आँखे झपकती है निरंतर पर झपकती हो शायद कभी ही आँखों से पानी गिराने के लिए। वो आँखे सोचती है कुछ नहीं, कल के बारें में व्यस्त रहती है वो सदा आज मे. वो आँखे जो कभी मिली होंगी कुछ आँखों से, और जो कभी दिखाती होंगी मघुर सपने भविष्य की कामनाओं के। शायद वो आँखे व्यस्त है खोजती उन्ही यादो को जो खो गयी है स्मर्तियो में भूत की मार से। और ढकी है, चिन्ताओ के परदे से वर्तमान की।